अयं हि परमो लाभ उत्तमश्लोक दर्शनं
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भाग ०३
सुदामाजी
सुंदरतम सुवर्णलेपीत नगरी के मुख्य व्दारपर आकर रुक गये और व्दारपालो से बिनतीपुर्वक पुछा की महोदय यह सुंदरतम नगरी कौनसी है..?
व्दारपालों ने बङी विनम्रता से जवाब दिया की हे महात्मन यह तो द्वारिकापुरी है जी। द्वारिकापुरी नाम सुनकर सुदामाजी तो चौंक गए और बोले भगवान श्री'कृष्णजीं की द्वारिकापुरी..! व्दारपाल बोले हा महात्मन श्री'कृष्ण परमात्मा की ही द्वारीकापुरी है..! सुदामाजीं महाव्दार से भितर जाने के लिए आगे बढे तो द्वारपालों ने उन्हें विनम्रता से रोका और पुछने लगे की-
आप किस योजन हेतु द्वारीकाधाम पधारें है जी, किसीसें मिलना है क्या..?
सुदामाजी थोडे सहम गए क्योंकी उन्होंने जैसे सोचा था उससे भी बहुत सुंदर एवं ऐश्वर्यसंपन्न नगरी थी द्वारीकानरेश की। इसी कारणवश उनके मन में आया की अपनी फटी हालत देखकर द्वारपालों को अगर कृष्ण उनके बालसखा होनें की बात बतायी जाए तो वह उनपर हसेंगे, मजाक समझेंगे और कृष्णसखा से मिलने नही देंगें। लेकीन दुसरे ही पल उनके मन मे विचार आया की हसें तो हसनें देंगे क्योंकी कृष्ण से हमें मांगना तो कुछ है नही, बस दर्शन ही हो जाए तो यह जीवन सफल हो जाएगा ऐसा सोचकर सुदामाजी द्वारपालों से कहते है, आपके स्वामी श्री'कृष्णचंद्रजी महाराज हमारे बचपन के सखा है और उनके केवल दर्शनमात्र की अास लेकर ही यहाँ विश्वासपुर्वक आया हु। अपीतु आपसें मेरा नम्र निवेदन हैं की कृपा करके, केवल एक ही बार, पास से न हो सके तो, दुरसें ही सहीं पर मेरे परममित्र उत्तमश्लोक श्री'कृष्ण का क्षणमात्र दर्शन हमें करा दो बस..! दर्शन हो जाएगा तो मै तुरंत ही वापस लौट जाऊंगा, ये ब्राह्मण आपको वचन देता है। सुदामाजीं की मुख से आया ब्राह्मण शब्द सुनकर द्वारपालों ने सुदामाजींको हाथ जोडकर क्षमा मांगने लगे और कहने लगे की हे विप्रजन हमें क्षमा करे क्योंकी हमारे स्वामी ने ब्राह्मण,संत और ऋषीमुनीयों के द्वारीकाधाम आवागमन पे कोई प्रतिबंध लगाया नही है। आप दो मिनट यहा पधारे क्योंकी अभी कुछ समयपुर्व महल से सुचना आयी थी की प्रभु का भोजन का समय हुआ है। हम महल मे आपका संदेश पहुचाकर द्वारीकानरेश से आपके आने की सुचना देकर वापस आकर आपको उनसे मिलने की सुचना कर देंगे। तब तक आप कृपया यहा विराजीए। द्वारपाल की बात सुनकर सुदामाजींके चेहरेंपर हसी लौटी और बोले, जी हा जरुर पुछकर आइए, तबतक मै यही बैठ जाता हु। बस द्वारीकानरेश को केवल इतना ही बताना की उनके बचपन के प्रियसखा *सुदामा* दर्शन हेतु पधारें है।
तुरंत ही जय-विजय द्वारपाल प्रभु के महल मे पहुच गये। हे स्वामी यदी आपके भोग के बाद विश्राम के समय मे आपको विघ्न न हो तो महाव्दार से अत्यंत आवश्यक निवेदन लाए है, सुनाने की अनुमती मिली तो बहुतही कृपा होगी। तुरंतही प्रभु ने जय-विजय द्वारपालों का निवेदन बताने की अनुमती दी और व्दारपाल जय-विजय ने निम्न प्रकार का संदेश स्वामी श्री'कृष्णजीं को सुनाया की-
किसीं सी पगा न जगा तनपें।
प्रभु जानीं को आनि बसो कही गामा।
धोती फटी सिलटीं दुपटी।
और पायों पानः कि नहीं चामा।
द्वार खङो व्दीज दुर्बल एक।
रहों चकसो बसुदा अभिरामा।
किं पुछत दीनदयाल को धाम।
बतावत आपनों नाम सुदामा॥
एक बहुत ही नितांत एवं विपन्न ब्राह्मण महाद्वार पे खङे है, जिन्हे सिर ढकनें को भी वस्त्र नही है।जो एकमात्र वस्त्र धोती के रुप में ओढा है वह भी चार जगह फटा और सिला हुआ है। जिनकी नस नस स्पष्ट रुपसे सहज ही खुली आँखों से हमे दिखाई दि इतने कमजोर है। लेकीन उनके मस्तिष्क का तेज और वाणी से ऐसा प्रतित होता है की निश्चीत रुपसें कोई बहुत बङे विद्वान पुरुष या साधुजन है। उन्होंने केवल आपको इतना बताने को कहा है की भगवन से बोलना आपके गुरुकुल के बालसखा सुदामा एकक्षण दर्शन की अभिलाषा हेतु द्वारीकापुरी पधारें है, और आपके दर्शन होते ही यहासे तुरंत अपने धाम चल पडेंगे..!
...क्रमशः ...
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सुदामाजी
सुंदरतम सुवर्णलेपीत नगरी के मुख्य व्दारपर आकर रुक गये और व्दारपालो से बिनतीपुर्वक पुछा की महोदय यह सुंदरतम नगरी कौनसी है..?
व्दारपालों ने बङी विनम्रता से जवाब दिया की हे महात्मन यह तो द्वारिकापुरी है जी। द्वारिकापुरी नाम सुनकर सुदामाजी तो चौंक गए और बोले भगवान श्री'कृष्णजीं की द्वारिकापुरी..! व्दारपाल बोले हा महात्मन श्री'कृष्ण परमात्मा की ही द्वारीकापुरी है..! सुदामाजीं महाव्दार से भितर जाने के लिए आगे बढे तो द्वारपालों ने उन्हें विनम्रता से रोका और पुछने लगे की-
आप किस योजन हेतु द्वारीकाधाम पधारें है जी, किसीसें मिलना है क्या..?
सुदामाजी थोडे सहम गए क्योंकी उन्होंने जैसे सोचा था उससे भी बहुत सुंदर एवं ऐश्वर्यसंपन्न नगरी थी द्वारीकानरेश की। इसी कारणवश उनके मन में आया की अपनी फटी हालत देखकर द्वारपालों को अगर कृष्ण उनके बालसखा होनें की बात बतायी जाए तो वह उनपर हसेंगे, मजाक समझेंगे और कृष्णसखा से मिलने नही देंगें। लेकीन दुसरे ही पल उनके मन मे विचार आया की हसें तो हसनें देंगे क्योंकी कृष्ण से हमें मांगना तो कुछ है नही, बस दर्शन ही हो जाए तो यह जीवन सफल हो जाएगा ऐसा सोचकर सुदामाजी द्वारपालों से कहते है, आपके स्वामी श्री'कृष्णचंद्रजी महाराज हमारे बचपन के सखा है और उनके केवल दर्शनमात्र की अास लेकर ही यहाँ विश्वासपुर्वक आया हु। अपीतु आपसें मेरा नम्र निवेदन हैं की कृपा करके, केवल एक ही बार, पास से न हो सके तो, दुरसें ही सहीं पर मेरे परममित्र उत्तमश्लोक श्री'कृष्ण का क्षणमात्र दर्शन हमें करा दो बस..! दर्शन हो जाएगा तो मै तुरंत ही वापस लौट जाऊंगा, ये ब्राह्मण आपको वचन देता है। सुदामाजीं की मुख से आया ब्राह्मण शब्द सुनकर द्वारपालों ने सुदामाजींको हाथ जोडकर क्षमा मांगने लगे और कहने लगे की हे विप्रजन हमें क्षमा करे क्योंकी हमारे स्वामी ने ब्राह्मण,संत और ऋषीमुनीयों के द्वारीकाधाम आवागमन पे कोई प्रतिबंध लगाया नही है। आप दो मिनट यहा पधारे क्योंकी अभी कुछ समयपुर्व महल से सुचना आयी थी की प्रभु का भोजन का समय हुआ है। हम महल मे आपका संदेश पहुचाकर द्वारीकानरेश से आपके आने की सुचना देकर वापस आकर आपको उनसे मिलने की सुचना कर देंगे। तब तक आप कृपया यहा विराजीए। द्वारपाल की बात सुनकर सुदामाजींके चेहरेंपर हसी लौटी और बोले, जी हा जरुर पुछकर आइए, तबतक मै यही बैठ जाता हु। बस द्वारीकानरेश को केवल इतना ही बताना की उनके बचपन के प्रियसखा *सुदामा* दर्शन हेतु पधारें है।
तुरंत ही जय-विजय द्वारपाल प्रभु के महल मे पहुच गये। हे स्वामी यदी आपके भोग के बाद विश्राम के समय मे आपको विघ्न न हो तो महाव्दार से अत्यंत आवश्यक निवेदन लाए है, सुनाने की अनुमती मिली तो बहुतही कृपा होगी। तुरंतही प्रभु ने जय-विजय द्वारपालों का निवेदन बताने की अनुमती दी और व्दारपाल जय-विजय ने निम्न प्रकार का संदेश स्वामी श्री'कृष्णजीं को सुनाया की-
किसीं सी पगा न जगा तनपें।
प्रभु जानीं को आनि बसो कही गामा।
धोती फटी सिलटीं दुपटी।
और पायों पानः कि नहीं चामा।
द्वार खङो व्दीज दुर्बल एक।
रहों चकसो बसुदा अभिरामा।
किं पुछत दीनदयाल को धाम।
बतावत आपनों नाम सुदामा॥
एक बहुत ही नितांत एवं विपन्न ब्राह्मण महाद्वार पे खङे है, जिन्हे सिर ढकनें को भी वस्त्र नही है।जो एकमात्र वस्त्र धोती के रुप में ओढा है वह भी चार जगह फटा और सिला हुआ है। जिनकी नस नस स्पष्ट रुपसे सहज ही खुली आँखों से हमे दिखाई दि इतने कमजोर है। लेकीन उनके मस्तिष्क का तेज और वाणी से ऐसा प्रतित होता है की निश्चीत रुपसें कोई बहुत बङे विद्वान पुरुष या साधुजन है। उन्होंने केवल आपको इतना बताने को कहा है की भगवन से बोलना आपके गुरुकुल के बालसखा सुदामा एकक्षण दर्शन की अभिलाषा हेतु द्वारीकापुरी पधारें है, और आपके दर्शन होते ही यहासे तुरंत अपने धाम चल पडेंगे..!
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