˙˙जय मुक्ताई ..

Saturday, 1 October 2016

अयं हि परमो लाभ उत्तमश्लोक दर्शनं -भाग ०२

 अयं हि परमो लाभ उत्तमश्लोक दर्शनं
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भाग ०२

ऐसे ब्रह्मविद्या के धनी भगवान श्री'कृष्ण के परमसखा सुदामाजीं का वर्णन करने के लिए श्री'शुकदेव महाराज भी श्रीमद भागवत के दशमस्कंध के ८०वे अध्याय मे कहते है की-

क्रिष्णस्यासीत सखा कश्चित।
ब्राह्मणो ब्रह्मवित्तमः।
विरक्त इंद्रियार्थेशू।
प्रशांतात्मा जितेंद्रियः।

     पवित्र सन्निधी भगवान श्री'कृष्ण का सहवास, सखा बनकर जिन्हें बाल्यावस्था में ही प्राप्त हुआ था, ऐसे भगवान श्री'कृष्ण के प्रियोत्तम सखा श्री'सुदामाजीं याने ब्रह्म को समजने में सर्वोत्तम ब्राह्मण माने जाते है अपीतु "ब्रह्म हि जिनकी संपत्ती है" ऐसा जो इंद्रियों से पुर्णतः विरक्त पुरुष है; अथवा जिनकी इंद्रिय पुर्णतः उनके वश में बने हुए है, ऐसे "प्रशांतात्मा सुदामाजी" की चरित्र का शब्दों मे वर्णन हम जेंसे अल्पमती बालक ने करना कितना उचीत रहेगा, भगवान ही जाने..!
धर्मपत्नी की बार बार बिनती के बाद सुदामाजीं "केवल श्री'कृष्ण के दर्शनहेतु द्वारीकाधाम की ओर प्रस्थान करने" के लिए तैयार होते है। पर परममित्र को मिलने के लिए खाली हाथ कैसे जाए..? यह सोचकर उदास मनसे पत्नी को अपनी विवशता बताते है। सुदामाजीं की पत्नी कहती है की हे मेरें नाथ, आपको दान मे मिली पुजा के सामग्री में से लाए चार घरों की चावलों मे से केवल एक मुठ्ठीभर चावलही घरमें बचें है स्वामी, वही आप ले जाए तो चलेगा ना। सुदामाजींने प्रसन्न मुद्रा सें पत्नी की ओर ऋणांकीत होकर कहा की- मेरें भगवान ने मुझपर कितनी कृपा करी है की ऐसी पत्नी दि जो भगवान को मिलनें के लिए जाने को बारबार बिनती करती है। घरमे बचेंकुचें "मुठ्ठीभर चावल" देकर भी, जो परमात्मा के दर्शन लिए प्रेरीत करती हो, ऐसी पत्नी को कैसे धन्यवाद कहु..! हे मेरे नाथ तेरे दर्शन को प्रेरीत करनेवाली मेरी धर्मपत्नी का भगवान पर विश्वास दुढतापुर्वक सदैव बनाए रखना। एक मुठ्ठी चावल फटे कपडें में बांध लिया और अपनी पत्नी को आशिष देकर सुदामाजीं द्वारीकानरेश से मिलने हेतु निकल पङे।
पिछले कुछ दिनोंसे खाने की कमी से चल रहे उपवास एवं सुदामाजीं के कृश शरिर के कारण वह व्दारिकानगरी तक पहुचनें में प्रायः असमर्थ हो गए थे। इसलिए व्दारिकानगरी पहुचने पुर्व ही वह थक कर एक पेंड की शितल छाया में बैंठ गए और मन में विचार करते रहे की अब तो चलाना होवे नही,
और व्दारिकानगरी कितनी दुरीपर है, रास्ता सही है की नही यह बतानेवाला भी यहाँ कोई भी है नही। इस प्रकार के विचार करते करते वह भगवान की ध्यान में मग्न हो गए और मन हि मन में भगवान से कहने लगे की-
भुख लगती है,प्यास लगती है।
तेरे बिना जिंदगी अब उदास लगती है।
कैंसे आऊ मै द्वारिका तेरी।
आस भी अब निरास लगती है।
भावविभोर होकर सुदामाजी कृष्ण को ही मदद के लिए पुकारने लगे। पुकारते पुकारते वह अचानक मुर्च्छा आकर सो गए।
कुछ समय के बाद सुमधुर मुरली की धुन से सुदामाजींकी आँख खुली। आवाज की ओर सौ-दौसो कदम चलने के बाद सुदामाजी मुरली बजानेवाले युवक के पास पहुच गये। कदंब वृक्ष के निचे बैठा हुआ युवक इतनी मधुर बांसुरी बजा रहा था की केवल सुनने मात्र सें ही सुदामाजींकी सारी थकान मिट गयी और उनके चेहरेपर दिव्य प्रसंन्नता छा गयी। युवक की बांसुरी की मधुरता इतनी मनभावन थी कि सुदामाजींने कुछ समय बन्सीं की धुन मे एक बार फिर सें खो गए। और मन ही मन विचार करनें लगे की मेरा सखा कृष्ण भी मुझे बचपन में ऐसींही बन्सी सुनाता था। कृष्ण का सुमीरण होते ही सुदामाजीं जाग गए, आँखे खुली तो पाया की थोङी दुरीपर ही एक सुंदर नगरी दिखाई दे रही थी। लेकीन मुरली बजानेवाला युवक कहीं नजर नहीं आ रहा था। सुदामाजींने थोडेसमय पुर्व घटा हुआ सारा प्रसंग स्वप्न मानकर सुंदर नगरी की ओर चल पङे।
                              ...क्रमश: ...
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