अयं हि परमो लाभ उत्तमश्लोक दर्शनं
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भाग १
भगवान श्री'श्रीकृष्ण के परममित्र
एवं बालसखा श्री' सुदामाजीं ।
उनकी पत्नी ने जब घरमें एक सप्ताहभर चुल्हें में अग्नी नहीं जला, तो बहुत ही विवश होंकर श्री'सुदामाजीं को अपनें बालसखा परममित्र श्री'कृष्ण की द्वारीकानरेश होने की याद देते हुए कहा की,
हे नाथ..!
ननु ब्रह्मण भगवत: सखा साक्षाच्र्छियः पतीः।
ब्रह्मण्यश्च शरणश्च भगवान सात्वतर्षभः।
आपके बचपन के सखा आजकल द्वारीकापुरी के "नाथ" है। आपको कभी उनको मिलने की ईर्षा नहीं होती। एक बार उनकें दर्शन करने जाने के लिए आपका मन नही होता क्या..?
पत्नी के मुख से अपने परममित्र भगवान श्री'कृष्ण का नाम सुनके श्री'सुदामाजीं बोले, हे देवी..!
कैसी याद दिला दी तुमने आज..! वो तो मेरा केवल मित्र ही नहीं है, लंगोटिया यार भी है देवी..! बचपनमें गुरुकुल मे संग रहते थे, एकसाथ ही खाते खेलते थे। संग संग ही पढते भी थे। उनसे मिलने की चाह किसे नही होगी देवी। लेकीन आजकल वो द्वारीका राजा है और उनके उपलक्ष में हम अपने झोपडीं के राजा है। एवं उनको क्या मिलना देवी जिनका कभी विस्मरण ही न हुआ हो। हमारे परममित्र श्री'कृष्ण का हमेंशा सुमीरण बनाए रहता है, उसमें ही हमें आनंद आता है देवी, यही हमारें लिए काफी है की वो सुमीरण के रुपमें हमेशा हमारे पास पास बने रहते है।
पतीदेव की बात सुनकर पत्नी बोली की मैं तो इसलिए कह रहीं थी की इस सप्ताह घरमें अन्न का दाना पका नही सकी। इसलिए आप अगर अपने मित्र से द्वारीकापुरी मिलनें जाए तो वो बहुतही प्रसन्न होकर कुछ द्रव्य दान में अवश्य दे सकते है, जिससें कुछ दिनों तक घरका चुल्हा तो जल उठेगा।
दास्यती द्रविणं भूरि सीदते ते कुटुम्बिने।
धर्मपत्नी की बात को बिच में ही काटकर सुदामाजीं बोलें, हे देवी क्या हो गया है आपको..? आपके मुख से आए हुए शब्द हमें परिस्थीतीं के सामनें हाथ फैलाकर भिख मांगने जैसा कर्म करनें को प्रवृत्त करा रहे है। जो एक ब्राह्मण को किंचीतभी शोभा नही देता, क्योंकी "ब्राह्मण को मांगने का हक शास्त्र ने बिलकुल दिया नही है"। यह बात आप भुल गयी क्या देवी..!
हे देवी, धन की कामना सें मित्र को मिलने भेजोगी तो जीवन में कतई नही जाऐंगे। हा लेकीन केवल दर्शन के लिए आप मिलनें को भेजोंगी तो हम अवश्य जाऐंगे क्योंकी...
अयं हि परमो लाभ उत्तमश्लोक दर्शनं ।
यही तो इस जीवन का परमलाभ है देवी, की "उत्तमश्लोक भगवान श्री'कृष्ण" का हमें साक्षात दर्शन हो जाए। तथा इसमें ही जिवन की सफलता एवं सार्थकता जुङी है।
अंततः इसी कारणवश ही तो हमें इस दुर्लभ योनी में आना पङा है तथा यही इस मनुष्य योनी का साध्य शास्त्रो नें भी बताया है ना..! यह सत्य तो आप भी भलीभाती जानती है ना देवी..!
...क्रमशः...
©from-
https://m.facebook.com/ChaitannyachaJivhala/
https://chaitannyachajivhala1.blogspot.in/
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भाग १
भगवान श्री'श्रीकृष्ण के परममित्र
एवं बालसखा श्री' सुदामाजीं ।
उनकी पत्नी ने जब घरमें एक सप्ताहभर चुल्हें में अग्नी नहीं जला, तो बहुत ही विवश होंकर श्री'सुदामाजीं को अपनें बालसखा परममित्र श्री'कृष्ण की द्वारीकानरेश होने की याद देते हुए कहा की,
हे नाथ..!
ननु ब्रह्मण भगवत: सखा साक्षाच्र्छियः पतीः।
ब्रह्मण्यश्च शरणश्च भगवान सात्वतर्षभः।
आपके बचपन के सखा आजकल द्वारीकापुरी के "नाथ" है। आपको कभी उनको मिलने की ईर्षा नहीं होती। एक बार उनकें दर्शन करने जाने के लिए आपका मन नही होता क्या..?
पत्नी के मुख से अपने परममित्र भगवान श्री'कृष्ण का नाम सुनके श्री'सुदामाजीं बोले, हे देवी..!
कैसी याद दिला दी तुमने आज..! वो तो मेरा केवल मित्र ही नहीं है, लंगोटिया यार भी है देवी..! बचपनमें गुरुकुल मे संग रहते थे, एकसाथ ही खाते खेलते थे। संग संग ही पढते भी थे। उनसे मिलने की चाह किसे नही होगी देवी। लेकीन आजकल वो द्वारीका राजा है और उनके उपलक्ष में हम अपने झोपडीं के राजा है। एवं उनको क्या मिलना देवी जिनका कभी विस्मरण ही न हुआ हो। हमारे परममित्र श्री'कृष्ण का हमेंशा सुमीरण बनाए रहता है, उसमें ही हमें आनंद आता है देवी, यही हमारें लिए काफी है की वो सुमीरण के रुपमें हमेशा हमारे पास पास बने रहते है।
पतीदेव की बात सुनकर पत्नी बोली की मैं तो इसलिए कह रहीं थी की इस सप्ताह घरमें अन्न का दाना पका नही सकी। इसलिए आप अगर अपने मित्र से द्वारीकापुरी मिलनें जाए तो वो बहुतही प्रसन्न होकर कुछ द्रव्य दान में अवश्य दे सकते है, जिससें कुछ दिनों तक घरका चुल्हा तो जल उठेगा।
दास्यती द्रविणं भूरि सीदते ते कुटुम्बिने।
धर्मपत्नी की बात को बिच में ही काटकर सुदामाजीं बोलें, हे देवी क्या हो गया है आपको..? आपके मुख से आए हुए शब्द हमें परिस्थीतीं के सामनें हाथ फैलाकर भिख मांगने जैसा कर्म करनें को प्रवृत्त करा रहे है। जो एक ब्राह्मण को किंचीतभी शोभा नही देता, क्योंकी "ब्राह्मण को मांगने का हक शास्त्र ने बिलकुल दिया नही है"। यह बात आप भुल गयी क्या देवी..!
हे देवी, धन की कामना सें मित्र को मिलने भेजोगी तो जीवन में कतई नही जाऐंगे। हा लेकीन केवल दर्शन के लिए आप मिलनें को भेजोंगी तो हम अवश्य जाऐंगे क्योंकी...
अयं हि परमो लाभ उत्तमश्लोक दर्शनं ।
अंततः इसी कारणवश ही तो हमें इस दुर्लभ योनी में आना पङा है तथा यही इस मनुष्य योनी का साध्य शास्त्रो नें भी बताया है ना..! यह सत्य तो आप भी भलीभाती जानती है ना देवी..!
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