अयं ही परमो लाभ उत्तमश्लोक दर्शनं
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भाग ०४
भगवान के कर्णपटलों पर सुदामा का नाम पङते ही भगवंत तेजीसे उठकर खङे हो गए और द्वारपालों से पुछा क्या कहा..! सुदामाजीं आए है और आपने उन्हे साथमें लाने की बजाय महाव्दारपर ही खङा करे रखे है, यह सुनतें ही भगवान श्री'कृष्ण की आँखो में एकाएक आंसु छलक आए और भगवान ने सुदामा को मिलनें हेतु एक क्षण भी व्यर्थ न कर खुद ही सुदामा को मिलने के लिए ऐसी दौड लगायी कि ना चरणपादुका पहनने की सुध रही ना दुपटी ओढने की सोची।
नंगे पैर भगवान सुदामा की ओर दौड रहें है, सिर पर का मोरमुकुट कहा गिर पङा मालुम ही नहीं।आँखो से आँसु बह रहे है और मुख से सिर्फ मित्र सुदामा...सुदामा...सुदामा...सुदामा..! कहाँ है मेरा सुदामा..! मेरे बचपन का प्रिय सखा..! मेरा प्यारा सुदामा..! बार बार सुदामा की रट लगाए भगवन अपनी मान प्रतिष्ठा मर्यादा और देवत्व हि भुलकर पांगलो की तरह नंगे पैर सुदामा की और दौड रहे है। पिछे सेनापती जय विजय और दासीयाें को दौडता देखकर महामंत्री उध्दवजींने भी कृष्ण के पिछे दौड लगाई और जय विजय दोंनो को पुछा की क्या हुआ भगवन को, क्यों रोंते रोतें दौड रहे है..? जय विजय ने कहा क्षमा करना महामंत्री जी महाव्दारपर सुदामा नाम का ब्राह्मण खङा है यह सुचना बताने मात्र से ही स्वामी की यह हालत हुई है..!
क्रिष्ण रोये जा रहे है एक चौकट पार करी दुसरी पार करी तिसरी चौथी पांचवी छटी एवं सातवी चौकट पार करने के बाद भगवान को दुर सें ही सुदामाजी नजर आए और भगवान एक क्षण रुक गये और मन ही मन में सोचने लगे की हाय रे मेरी फुटी किस्मत मेरे परममित्र को मेरे ही सेवको ने भरी धुप में बिठा के रखा। कितने दिनोंसे मेरे दर्शन के लिए भुखा प्यासा कष्ट लेकर चला आ रहा है। उसें मेरे सेवको ने उसका कष्ट कम करने हेतु कार्य करने की जगह सुदामाजी को व्दारपर हि रोंककर और ज्यादा ही कष्ट दिये है, ऐसा भगवन पद किस कामका जिसके कारण मित्रभक्त को कष्ट उठाना पङे..! ऐसें विचारोंसे कृष्ण का हृदय पुनः द्रविभुत हो गया और परमात्मा जोर जोर से सिंसकीया लेकर रोने लगे... भरी नयनोंसे ही सुदामाजींकी ओर दोनों बाहे फैलाकर आवाज लगाई, प्रिय मित्र सुदामा..! मेरे सर्वोत्तम सखा...! क्रिष्ण की पुकार सुनकर सुदामाजींने आवाज की ओर मुडकर देखा तो स्वयं श्री'श्रीकृष्ण भगवान उनकी ओर बाहें फैलाकर रोते हुए दौङे आ रहे थे..! अपने उत्तमश्लोक प्रियमित्र श्री'कृष्ण को कई वर्षो बाद देखकर सुदामा के मनमें भी आसु छलक ही गए पर संकोच के कारण सुदामाजी आसुओं को पी गये। इस बात से कृष्ण भलीभाती परिचीत थे इसी कारणवश रोते दौडते भगवान सुदामा के पास आ गए और सुदामा जीं बाहें फैलाये उसके पुर्व ही भगवन ने सुदामाजीं को अपने अंक मे भर लिया।
सुदामाजींको अंक में भरने के बाद उनकी दीन दशा देखकर भगवान खुब फुट फुटकर रोये और साथमें फटे हाल ब्राह्मण के प्रती भगवान की करुणा को देखकर उपस्थित महामंत्री सेनापती तथा द्वारपाल दासीया सभी के नेत्रों से करुणा की फुहार झलकने लगी।
देखी सुदामा की दीन दशा।
करुणा कर के करुणानिधी।
पानि तरात फुहाट छुयो नही।
नैनं के जल सो पग धोय।
भगवंत के आसु सुदामाजीं के तनपर आश्रीत होते हि सुदामाजीं को जैसे भगवन ने स्वयं अपने नयनों के अनमोल मोतीयों सुदामा की काया को शृंगारीत करके जैसे निर्मल पवित्र ही कर दिया था।
अपने स्वामी की यह कभी न देखी हुई अवस्था देख यदुवंशीयो के महामंत्री उध्दव जी के मन मे आया की वाह रे गोविन्द तेरी माया..! क्या रखा है इस फटें हाल ब्राह्मण मे जो इतनी करुणा इनपर बरस रही है, तथा स्वयं भगवन ही इन्हें मिलने के लिए पांगलो की तरह नंगे पाव रोते हुए दौडे चले आये और इन महाशय पर इसका कुछ भी असर नही।
भगवन सुदामा को बारबार अंक मे भरने के बाद उनको अपने महल में लेंके गए। तब तक भगवन को भी विरह में रुलाकर उनकी करुणादायी अवस्था करनेवाले प्रियमित्र द्वारीकाधाम के राजमहल में पधारे है यह सुचना द्वारीकानगरी में फैल गई और ऐसें महापुरुष के दर्शन हेतु भगवन को पती माननेवाली १६१०८ नारीया कुछ ही समय में महल में आ गयी। सभी द्वारीकावासींयों के सामने भगवन ने सुदामा का ऐसा सत्कार किया की सब अचंबित होकर देखतें ही रह गए।
भगवन ने अपने प्रियमित्र को अपनें स्वयं के सुवर्णमंडीत सिंहासन पे बिठाया और स्वयं उनके पैरों में बैठ गए। अपने हाथों सुदामाजीं के पैरो को धोकर अभिषेक एवंम पुजन किया तथा भगवन बोले हे मेरे मित्र बहुत थक गए होगे ना आप चल चलके, कितने दिनो से आप सिर्फ मेरे ही केवल दर्शन के लिए ही कष्ट उठा रहे थे ना..! ऐसा बोलकर भगवन स्वयं सुदामा जी के पैर अपनें हाथों से दबाने लगते है। भगवन की करुणा देखकर सुदामा जीं के आँखों मे आसु छलक जाते है और भगवन सुदामा की आँखो में आसु देखते ही भगवन के नयनो में समाया करुणा का सागर पलको से उमङ आता है।
दोनों मित्रों का आपस में गहरा स्नेह देखकर उपस्थित सभी द्वारकावासीयों की आंखे भर आती है। तथा फटे हाल ब्राह्मण का इतना बङा सत्कार देख सभी हैरान हो जाते है और सोचने लगते है की सचमें क्या रखा होगा इस फटे हाल दरिद्री ब्राह्मण मे..!
अब दोनों मित्रो के बिच कैसा संबंध था इसपर बिचार किया जाए तो हमें ये समझना चाहीए की, केवल दर्शन की आस लेकर हम अगर सुदामाजीं की तरह दर्शन हेतु शुध्द भाव लेकर भगवन को मिलने जाए तो भगवन हमारा भी सुदामा जीं जैसा अद्भुत सत्कार करेंगे इसमें कोई संकोच न रखे। लेकीन हमलोग मंदीर में तो जातें है लेकीन हम केवल दर्शन का शुध्द हेतु मन में लिए मंदीर जाते है क्या..? ...जरा सोचकर सोंचो..! और हो सकें तो सुदामाजी को अपनें में उतार सकें तो उतार लो फिर देखना भगवन कि करुणा कैसे बरसती है..।
...क्रमशः ...
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भगवान के कर्णपटलों पर सुदामा का नाम पङते ही भगवंत तेजीसे उठकर खङे हो गए और द्वारपालों से पुछा क्या कहा..! सुदामाजीं आए है और आपने उन्हे साथमें लाने की बजाय महाव्दारपर ही खङा करे रखे है, यह सुनतें ही भगवान श्री'कृष्ण की आँखो में एकाएक आंसु छलक आए और भगवान ने सुदामा को मिलनें हेतु एक क्षण भी व्यर्थ न कर खुद ही सुदामा को मिलने के लिए ऐसी दौड लगायी कि ना चरणपादुका पहनने की सुध रही ना दुपटी ओढने की सोची।
नंगे पैर भगवान सुदामा की ओर दौड रहें है, सिर पर का मोरमुकुट कहा गिर पङा मालुम ही नहीं।आँखो से आँसु बह रहे है और मुख से सिर्फ मित्र सुदामा...सुदामा...सुदामा...सुदामा..! कहाँ है मेरा सुदामा..! मेरे बचपन का प्रिय सखा..! मेरा प्यारा सुदामा..! बार बार सुदामा की रट लगाए भगवन अपनी मान प्रतिष्ठा मर्यादा और देवत्व हि भुलकर पांगलो की तरह नंगे पैर सुदामा की और दौड रहे है। पिछे सेनापती जय विजय और दासीयाें को दौडता देखकर महामंत्री उध्दवजींने भी कृष्ण के पिछे दौड लगाई और जय विजय दोंनो को पुछा की क्या हुआ भगवन को, क्यों रोंते रोतें दौड रहे है..? जय विजय ने कहा क्षमा करना महामंत्री जी महाव्दारपर सुदामा नाम का ब्राह्मण खङा है यह सुचना बताने मात्र से ही स्वामी की यह हालत हुई है..!
क्रिष्ण रोये जा रहे है एक चौकट पार करी दुसरी पार करी तिसरी चौथी पांचवी छटी एवं सातवी चौकट पार करने के बाद भगवान को दुर सें ही सुदामाजी नजर आए और भगवान एक क्षण रुक गये और मन ही मन में सोचने लगे की हाय रे मेरी फुटी किस्मत मेरे परममित्र को मेरे ही सेवको ने भरी धुप में बिठा के रखा। कितने दिनोंसे मेरे दर्शन के लिए भुखा प्यासा कष्ट लेकर चला आ रहा है। उसें मेरे सेवको ने उसका कष्ट कम करने हेतु कार्य करने की जगह सुदामाजी को व्दारपर हि रोंककर और ज्यादा ही कष्ट दिये है, ऐसा भगवन पद किस कामका जिसके कारण मित्रभक्त को कष्ट उठाना पङे..! ऐसें विचारोंसे कृष्ण का हृदय पुनः द्रविभुत हो गया और परमात्मा जोर जोर से सिंसकीया लेकर रोने लगे... भरी नयनोंसे ही सुदामाजींकी ओर दोनों बाहे फैलाकर आवाज लगाई, प्रिय मित्र सुदामा..! मेरे सर्वोत्तम सखा...! क्रिष्ण की पुकार सुनकर सुदामाजींने आवाज की ओर मुडकर देखा तो स्वयं श्री'श्रीकृष्ण भगवान उनकी ओर बाहें फैलाकर रोते हुए दौङे आ रहे थे..! अपने उत्तमश्लोक प्रियमित्र श्री'कृष्ण को कई वर्षो बाद देखकर सुदामा के मनमें भी आसु छलक ही गए पर संकोच के कारण सुदामाजी आसुओं को पी गये। इस बात से कृष्ण भलीभाती परिचीत थे इसी कारणवश रोते दौडते भगवान सुदामा के पास आ गए और सुदामा जीं बाहें फैलाये उसके पुर्व ही भगवन ने सुदामाजीं को अपने अंक मे भर लिया।
सुदामाजींको अंक में भरने के बाद उनकी दीन दशा देखकर भगवान खुब फुट फुटकर रोये और साथमें फटे हाल ब्राह्मण के प्रती भगवान की करुणा को देखकर उपस्थित महामंत्री सेनापती तथा द्वारपाल दासीया सभी के नेत्रों से करुणा की फुहार झलकने लगी।
देखी सुदामा की दीन दशा।
करुणा कर के करुणानिधी।
पानि तरात फुहाट छुयो नही।
नैनं के जल सो पग धोय।
भगवंत के आसु सुदामाजीं के तनपर आश्रीत होते हि सुदामाजीं को जैसे भगवन ने स्वयं अपने नयनों के अनमोल मोतीयों सुदामा की काया को शृंगारीत करके जैसे निर्मल पवित्र ही कर दिया था।
अपने स्वामी की यह कभी न देखी हुई अवस्था देख यदुवंशीयो के महामंत्री उध्दव जी के मन मे आया की वाह रे गोविन्द तेरी माया..! क्या रखा है इस फटें हाल ब्राह्मण मे जो इतनी करुणा इनपर बरस रही है, तथा स्वयं भगवन ही इन्हें मिलने के लिए पांगलो की तरह नंगे पाव रोते हुए दौडे चले आये और इन महाशय पर इसका कुछ भी असर नही।
भगवन सुदामा को बारबार अंक मे भरने के बाद उनको अपने महल में लेंके गए। तब तक भगवन को भी विरह में रुलाकर उनकी करुणादायी अवस्था करनेवाले प्रियमित्र द्वारीकाधाम के राजमहल में पधारे है यह सुचना द्वारीकानगरी में फैल गई और ऐसें महापुरुष के दर्शन हेतु भगवन को पती माननेवाली १६१०८ नारीया कुछ ही समय में महल में आ गयी। सभी द्वारीकावासींयों के सामने भगवन ने सुदामा का ऐसा सत्कार किया की सब अचंबित होकर देखतें ही रह गए।
भगवन ने अपने प्रियमित्र को अपनें स्वयं के सुवर्णमंडीत सिंहासन पे बिठाया और स्वयं उनके पैरों में बैठ गए। अपने हाथों सुदामाजीं के पैरो को धोकर अभिषेक एवंम पुजन किया तथा भगवन बोले हे मेरे मित्र बहुत थक गए होगे ना आप चल चलके, कितने दिनो से आप सिर्फ मेरे ही केवल दर्शन के लिए ही कष्ट उठा रहे थे ना..! ऐसा बोलकर भगवन स्वयं सुदामा जी के पैर अपनें हाथों से दबाने लगते है। भगवन की करुणा देखकर सुदामा जीं के आँखों मे आसु छलक जाते है और भगवन सुदामा की आँखो में आसु देखते ही भगवन के नयनो में समाया करुणा का सागर पलको से उमङ आता है।
दोनों मित्रों का आपस में गहरा स्नेह देखकर उपस्थित सभी द्वारकावासीयों की आंखे भर आती है। तथा फटे हाल ब्राह्मण का इतना बङा सत्कार देख सभी हैरान हो जाते है और सोचने लगते है की सचमें क्या रखा होगा इस फटे हाल दरिद्री ब्राह्मण मे..!
अब दोनों मित्रो के बिच कैसा संबंध था इसपर बिचार किया जाए तो हमें ये समझना चाहीए की, केवल दर्शन की आस लेकर हम अगर सुदामाजीं की तरह दर्शन हेतु शुध्द भाव लेकर भगवन को मिलने जाए तो भगवन हमारा भी सुदामा जीं जैसा अद्भुत सत्कार करेंगे इसमें कोई संकोच न रखे। लेकीन हमलोग मंदीर में तो जातें है लेकीन हम केवल दर्शन का शुध्द हेतु मन में लिए मंदीर जाते है क्या..? ...जरा सोचकर सोंचो..! और हो सकें तो सुदामाजी को अपनें में उतार सकें तो उतार लो फिर देखना भगवन कि करुणा कैसे बरसती है..।
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