अयं ही परमो लाभ उत्तमश्लोक दर्शनं
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सुदामाकथा-भाग०५
केवल अपने प्रियसखा भगवन श्री'कृष्ण के दर्शनमात्र सुख की अभिलाशा करनेवाले सुदामाजीं की भगवन श्री'कृष्ण ने स्वयं तो सेवा कि ही तथा उसके उपरांत सुदामाजीं की दीनता में छुपी अमिरता जानकर देवी मित्रवृंदा माताने भी उनकी शुश्रुषा करने के लिए स्वयं पंखा किया।
कुचैलं मलिनं क्षामं व्दिजं धमनिसंततं।
देवी पर्यचरत्साक्षाच्चामरव्यजनेन वै॥
इस प्रकार फटे हाल नितांत विपन्न ब्राह्मण का सर्वोत्तम सत्कार समारंभ देखकर उपस्थित लोकगणं विस्मयादीत होकर कहने लगें की कितना भाग्यशाली है यह ब्राह्मण की इस मृत्युलोक में इतना बङा सत्कार इसका हो रहा है।
सुदामां जी भी अपना सत्कार देख कर भगवान सें कहने लगें हे मेरे नाथ,आप यह क्या कर रहे है मैं तो इस आदरातिथ्य के कदापीे लायक ही नही अपीतु आप यह सब न करें तो ही मुझे आनंद आएगा..! क्योंकी यह मानसन्मान भी आपमें एकरुप होनें में अचरज ही तो लाता है ना..! यह बात कैसे भुली जावु, इसलिए सुदामा जीं ने अपना सत्कार रोकनें के लिए भगवान से प्रार्थना की लेकीन भगवन बोले हे मित्र आज हमें न रोंके क्योंकी आज जो कुछ भी मैं हु सब आप ब्राह्मणों की वजह से ही हु, यह बात मैं भी कैसे भुल सकता हु। आप लोंगोंके आशिर्वाद से ही तो मैं इस धरणीपर हु।
प्रभु रामजी ने परशुरामजीं से वाल्मीकी रामायण मे कहते है की-
विप्र प्रसादात धरनी धरोहम्
विप्र प्रसादात कमला वरोहम्
विप्र के आशिर्वाद से ही इस धरणीपर मैं हु यह रामावतार का वचन मुझे इस अवतार में भी तो निभाना पङेगा ना जी..!
सुदामजींके बार बार टोकने पर भी भगवान ने उनका उचीत स्वागत किया क्योंकी यह स्वागत मित्र का कम था उपलक्ष में यह स्वागत सुदामाजीं के त्याग एवं संतोष वृत्तीका किया था यह बात खयाल में रखनेयोग्य है।
धूपैःसुरभिभिर्मित्रं प्रदीपावलिभिर्मुदा।
स्वागत समारंभ के बाद भगवन की सारी पत्नीयां सुदामाजीं के दर्शन के लिए आने लगी। एक को आशिष दिया दुसरी को तिसरी को चौंथी पाचवीं छटी सातवी ऐसे सौ दौसो राणीयों को आशिर्वाद देने के बाद सुदामाजीं थक गए। इसलिए भगवन से कहने लगे कि, हे भगवन कितनी है और..? भगवन मंद मुस्कुराए एवं मित्र की चुटकी लेते हुए बोले की आप लोंगे की दया से बहोत है, क्योंकी हर विवाह के पहले पत्रिका मिलानेवाले आप के ही लोग थे ना..!
सुदामांजी भी मुस्कुराए और भगवन से बोले की चलो ठिक है लेकीन मित्र अब आशिष देने के लिए इन क्षीण हाथ एवं मुखमें शक्ती नही बचीं है। और सबको आशिष देते बैठु तो यही सुबह हो जाएगी लेकीन सुबह तो मुझें अपने धाम को भी तो निकलना है ना।
एवं सौ दौसो राणींयो को आशिर्वाद अब दे ही दिया है अतः बाकीयों को ना दु तो सारी नाराज होकर मेरें चले जाने के बाद आपसे झगडा ना कर बैठे। यह संभावना ठुकरायी न जा सकती है ना जी..! इसलिए इन सभीं राणीयों कि ओरसें हे भगवन आपही मुझें प्रणाम कर दो मै आपको ही आशिष दे दुंगा ताकी सबको वह मनोवांछीत फल दे देगा..!
सुदामा के मुख से निकले शब्द सुनकर मानें प्रभु को आनंद ही हुआ क्योंकी शायद प्रभु भी यही चाहते थे इसलिए भगवन नें सुदामा जीं के चरणों में प्रणाम कर दिया और सुदामाजीं ने कृष्ण के उपलक्ष में सभी राणींयों को मनःपुर्वक आशिष दिया।
...क्रमशः...
...जयमुक्ताई...रामकृष्णहरी...👣स्पर्श...
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केवल अपने प्रियसखा भगवन श्री'कृष्ण के दर्शनमात्र सुख की अभिलाशा करनेवाले सुदामाजीं की भगवन श्री'कृष्ण ने स्वयं तो सेवा कि ही तथा उसके उपरांत सुदामाजीं की दीनता में छुपी अमिरता जानकर देवी मित्रवृंदा माताने भी उनकी शुश्रुषा करने के लिए स्वयं पंखा किया।
कुचैलं मलिनं क्षामं व्दिजं धमनिसंततं।
देवी पर्यचरत्साक्षाच्चामरव्यजनेन वै॥
इस प्रकार फटे हाल नितांत विपन्न ब्राह्मण का सर्वोत्तम सत्कार समारंभ देखकर उपस्थित लोकगणं विस्मयादीत होकर कहने लगें की कितना भाग्यशाली है यह ब्राह्मण की इस मृत्युलोक में इतना बङा सत्कार इसका हो रहा है।
सुदामां जी भी अपना सत्कार देख कर भगवान सें कहने लगें हे मेरे नाथ,आप यह क्या कर रहे है मैं तो इस आदरातिथ्य के कदापीे लायक ही नही अपीतु आप यह सब न करें तो ही मुझे आनंद आएगा..! क्योंकी यह मानसन्मान भी आपमें एकरुप होनें में अचरज ही तो लाता है ना..! यह बात कैसे भुली जावु, इसलिए सुदामा जीं ने अपना सत्कार रोकनें के लिए भगवान से प्रार्थना की लेकीन भगवन बोले हे मित्र आज हमें न रोंके क्योंकी आज जो कुछ भी मैं हु सब आप ब्राह्मणों की वजह से ही हु, यह बात मैं भी कैसे भुल सकता हु। आप लोंगोंके आशिर्वाद से ही तो मैं इस धरणीपर हु।
प्रभु रामजी ने परशुरामजीं से वाल्मीकी रामायण मे कहते है की-
विप्र प्रसादात धरनी धरोहम्
विप्र प्रसादात कमला वरोहम्
विप्र के आशिर्वाद से ही इस धरणीपर मैं हु यह रामावतार का वचन मुझे इस अवतार में भी तो निभाना पङेगा ना जी..!
सुदामजींके बार बार टोकने पर भी भगवान ने उनका उचीत स्वागत किया क्योंकी यह स्वागत मित्र का कम था उपलक्ष में यह स्वागत सुदामाजीं के त्याग एवं संतोष वृत्तीका किया था यह बात खयाल में रखनेयोग्य है।
धूपैःसुरभिभिर्मित्रं प्रदीपावलिभिर्मुदा।
स्वागत समारंभ के बाद भगवन की सारी पत्नीयां सुदामाजीं के दर्शन के लिए आने लगी। एक को आशिष दिया दुसरी को तिसरी को चौंथी पाचवीं छटी सातवी ऐसे सौ दौसो राणीयों को आशिर्वाद देने के बाद सुदामाजीं थक गए। इसलिए भगवन से कहने लगे कि, हे भगवन कितनी है और..? भगवन मंद मुस्कुराए एवं मित्र की चुटकी लेते हुए बोले की आप लोंगे की दया से बहोत है, क्योंकी हर विवाह के पहले पत्रिका मिलानेवाले आप के ही लोग थे ना..!
सुदामांजी भी मुस्कुराए और भगवन से बोले की चलो ठिक है लेकीन मित्र अब आशिष देने के लिए इन क्षीण हाथ एवं मुखमें शक्ती नही बचीं है। और सबको आशिष देते बैठु तो यही सुबह हो जाएगी लेकीन सुबह तो मुझें अपने धाम को भी तो निकलना है ना।
एवं सौ दौसो राणींयो को आशिर्वाद अब दे ही दिया है अतः बाकीयों को ना दु तो सारी नाराज होकर मेरें चले जाने के बाद आपसे झगडा ना कर बैठे। यह संभावना ठुकरायी न जा सकती है ना जी..! इसलिए इन सभीं राणीयों कि ओरसें हे भगवन आपही मुझें प्रणाम कर दो मै आपको ही आशिष दे दुंगा ताकी सबको वह मनोवांछीत फल दे देगा..!
सुदामा के मुख से निकले शब्द सुनकर मानें प्रभु को आनंद ही हुआ क्योंकी शायद प्रभु भी यही चाहते थे इसलिए भगवन नें सुदामा जीं के चरणों में प्रणाम कर दिया और सुदामाजीं ने कृष्ण के उपलक्ष में सभी राणींयों को मनःपुर्वक आशिष दिया।
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