अयं ही परमो लाभ उत्तमश्लोक दर्शनं
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सुदामाकथा - भाग०६
सत्कार एवं आशिर्वाद समारंभ
के उपरांत भगवन और सुदामांजी के बिच बाल्यावस्था में घटी गुरुकुल की यादों का स्मरण होता है। ऐसे ही बातों बातों में कृष्ण भगवान गुरुकुल से बिछडने के बाद मिलनेवाले अपने मित्र सुदामा को कुछ पारिवारीक बाते पुछी।
अपि ब्रह्मन्कुलानद्भवता लब्धदक्षिणात्
समावृत्तेन धर्मज्ञ भार्योढा सद्दृशी न वा॥
भगवन कहते है की हे मित्र गुरुकुल से शिक्षा अर्जीत करने के उपरांत आपको आपके स्वभावानुसार सुशील पत्नी मिली की नही। सुदामा जीं बोले , अब देख भाई मातपिता के आगे हमारी एक ना चली और इस ब्राह्मण को सुशीला नामक ब्राह्मणी मिली वो भी नाम कि ही तरह सुशील।
क्रिष्ण मंद मुस्कुराए एवं बोले, तो निश्चीत ही उन्होंने मेरे लिए कुछ ना कुछ तो भेजा ही होगा ना..!
यह प्रश्न तो सुदामाजीं को सबके सामनें अपेक्षीत ही न था क्योंकी इस प्रश्न के उत्तर से सुदामाजीं को कोई फरक न पङता लेकीन भगवन के
प्रतिष्ठा में यह उत्तर किसी प्रकार का विघ्न न डालें यह संकोच सुदामांजी के मन मे आया था इसलिए सुदामाजीं भगवन कि बात टालने लगे। लेकीन भगवन के बार बार पुंछने पर सुदामा जीं बात को टालते हुए देख भगवन अपना स्वभाव बतातें है की-
पत्रं पुष्पं फलं तोयं यो मे भक्त्या प्रयश्चति
तदहं भक्त्युप्रहृतमश्र्नामि प्रयतात्मनः॥
जो भी जिव मुझे श्रध्दा प्रेमपुर्वक एवं भक्तिभाव मनसे कोई भी पत्र पुष्प फल या पानी चढाता है ऐसे जिव के चढावें का मै पुर्णतः स्विकार करता हु क्योंकी क्या चढाया इससे ज्यादा कितने भक्तिभाव एवं समर्पण वृत्तीसे चढाया उसका महत्त्व ज्यादा है इसलिए ऐसे जिवों ने दि हुई प्रत्येक वस्तु पदार्थ का स्विकार करना यही मेरा मुल स्वभाव है। भगवन ने इतना समझानें के बाद भी सुदामाजींके मन का संकोच न मिटा देख भगवन ने सुशीलादेवी ने दि हुई पोटली सुदामाजीं से स्वयं ही लेकर खोली तो उसमें बांधे हुए मुठ्ठीभर चावल(पोहा) को देखकर भगवन की आंखे नम हो गई क्योंकी फटें कपङे को सिलाकर बांधे हुए चार घरों के चावल सिर्फ चावल नही थे वह सुदामाजीं की नितांत विपन्नता एवं गरिबी का प्रतीक थे। तथा वह चार घरों से मिले चावल ही हमारी विपन्नता द्वारीकानरेश को बतानें में पर्याप्त थे यह बात सुदामाजीं की पत्नी को अपेक्षीत थी क्योंकी मेरें पतिदेव तो भगवान से कुछ मांगनेवाले नही थे यह बात सुशीलादेवी निश्चीतरुप से जानती ही थी इसी कारणवश सुशीलादेवीं ने दिए हुए चावल न बोलते हुए भी भगवन को बहुत कुछ बता गए।
दास्यती द्रविणं भूरि सीदते ते कुटुम्बिने।
पोटली खोलने के बाद भगवन सुदामा की ओर देखकर बोले, सारे ब्रह्मांड एवं विश्व का भरणषोषण करके पुर्ती कर संतुष्ट करनेवाले भगवन आज भाभीं ने भेंजे चावल(पोहे) खाकर स्वयं तो तृप्त होंगें ही पर सारे ब्रह्मांड की आत्मा भी तृप्त हो जाएगी। *अर्नि विश्वात्मा प्रियंताम्*
ऐसा कहकर भगवान ने अपनें ही हाथों से कच्चे चावल का एक निवाला उस मुख में ङाला जिस मुखमे बचपन मे ही मैय्या यशोदा को सारे ब्रम्हांड का दर्शन कराया था।
सुदामाजींने लाए कच्चे चावल का एक निवाला भगवन ने अतीआनंद से भोग लगाकर स्विकार किया और मन ही मन में संतुष्ट होकर पृथ्वी के एक छत्रसम्राट का सुख और साथमें १४भुवनों की संपत्ती सुदामांजीं को दान में दे दी।
दुसरे निवाले का भोग लगा ही रहे थे की माता रुक्मिणी ने भगवन को रोक दिया और कहा की-
एतावताऽलं विश्वात्मन्सर्वसंपत्ससमृध्दये।
अस्मिँल्लोकेथवाऽमुष्मिन्पुंसस्त्वतोषकारणं॥
हे भगवन..!
एक निवाला खाकर ही आपनें तो बहुतकुछ संपत्ती तो दान कर दी है अब दुसरा निवाला खाकर मुझें भी अनके हवाले ना करें तो अच्छा है।ऐसा कहकर क्रिष्ण को रोक दिया था।
...क्रमशः ...
...जयमुक्ताई...रामकृष्णहरी...👣स्पर्श...
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