˙˙जय मुक्ताई ..

Sunday, 2 October 2016

अयं ही परमो लाभ उत्तमश्लोक दर्शनं -भाग०७

अयं ही परमो लाभ उत्तमश्लोक दर्शनं
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सुदामाकथा- भाग०७

   अब यहा प्रश्न आता है की सुदामाजीं ने तो कुछ भी मांगा नही था,अपितु वे तो केवल अयं ही परमो लाभ उत्तमश्लोक दर्शनम् 
  भगवान का दर्शन ही में ही परमलाभ मिलता है ऐसी अभिलाशा लेकर ही भगवन के दर्शन हेतु द्वारीकाभधाम पधारें थे, तो भगवन ने उनपर इतनी उदारता क्यों दिखाई..? इस प्रश्न के लिए इतना हि कह सकते है की, जिनकें घर में केवल एक मुठ्ठी चावल ही संपत्ती बची हो और वह भी भगवन के लिए देनेवालीं सुदामा जीं की पत्नी का कष्ट दुर करने के लिए अकारणकरुणावरुणालय को करुणा तो करनी ही पङी होगी। तथा स्वयं एक मुठ्ठी चावल पासमें होके भी वह न खाकर भगवन के दर्शन के लिए भुखे चल रहे सुदामा के भगवन के प्रति उपजी त्यागवृत्ती का भगवन ने फल नही दिया होता तो शायद भक्तींमें त्यागवृत्ती का महत्त्व नहिं बच पाता। इसलिए सुदामा जीं ने न मांगकर भी भगवन ने सुदामा कि संपुर्ण नगरी विश्वकर्मा भगवन को आज्ञा देकर सुवर्ण की कर दि थी। यद्यपी अगर भगवन सुदामाजीं को प्रत्यक्षरुप से धनसंपत्ती देते तो वह नहिं लेंते यह बात भी भगवन को पुर्णरुप से पता थी क्योंकीं सुदामा सर्वसाधारण ब्राह्मण थे हि नही वो तो 
ब्राह्मणो ब्रह्मः वित्तम
 के अनुसार ब्रह्म संपत्ती के धनी तो थे ही लेकीन उनकी संतोषवृत्ती ही इस मानवदेह की अनमोल संपत्ती के बराबर थी। यह बात भगवन कृष्ण को पता थी इसलिए न मांगते हुए भी सुदामा सबकुछ पा गए थे लेकीन वे इस बात से अनभिज्ञ थे। 

     अपने परमित्र के यहा एक रात्री साक्षात स्वर्ग सुखों का अनुभव कर सुदामांजी दुसरे दिन अपने धाम निकल पङे। तब भगवन कृष्ण ने स्वयं वंदन करनेपरांत उन्हें छोडने के लिए उनके साथ स्वयं चलकर राह दिखाई। तथा पुनः जल्द वापस आने के लिए कहा।

श्र्वोभूते विश्वभावेन स्वसुखेनाभिवंदितः।
जगाम स्वालयं तात पथ्यनुव्रज नंदित:॥

    सुदामाजीं अपने धाम चलते चलते, रास्ते में मन ही मन में सोचनें लगें की स्वयं भगवान होकर भी ब्राह्मणों के प्रति कितना नम्र है मेरा मित्र..!
क्वाहं दरिद्रः पापीयान्क्व कृष्णः श्रीनिकेतनः।
ब्रह्मबंधुरिति स्माहं बाहुभ्यां परिरंभितः॥

  उनकी ब्राह्मणों के प्रति निष्ठा का मैंने स्वयं अनुभव लिया है इसलिए कृष्ण करुणामयी है यह बात हम सबके लिए विशेष लाभदायी है। यह बात से सुनिश्चीत होता है की भगवान भक्तिप्रेम ही देखता है बाकी परिस्थिती का उनकें लिए कोई महत्त्व नही होता। अगर भक्त कि गरिबी अमिरी देखकर ही भगवान भक्त से नाता जोंडतें तो मै तो दुरदुर तक कहीं नजर नही आता क्योंकि कहा मै विपन्न दरिद्री ब्राह्मण एवं कहा भगवान श्रीकृष्ण..! हमारे मिलन कि कोई भी तुलना संभव तो नही थी लेकीन करुणामयी कृष्ण ने जो मेरी सेवा तथा गौसत्कार किया है ना, यहीं भक्त कि सर्वोत्तम संपदा है। तथा उन्होंने मेरे भक्ती दृढ करने के लिए जो आवश्यक था वहीं प्रेम मुझें प्रदान कर मुझपर बहुत ही कृपा की है और इसी बात के लिए ही तो हम सबको इस मृत्युलोक में आना पङता है। अपितु यह मेरा सौभाग्य है की कृष्ण ने मेरे भक्ति प्रेम धनसंपदा विघ्न ङाल सकती है इसलिए मुझें ऐश्वर्यसंपन्न नही किया। मन ही मन सुदामाजींने भगवान कि करुणा को धन्यवाद दिया और अपने धाम कि ओर बढे।
   चलते चलते भावविभोर होकर कृष्ण के वियोग से सुदामाजीं के आँखों से आसु छलक पडे और सुदामाजीं भगवन की अत्यंतीक करुणा देखकर रो पङे। उनकें मन से भी क्रिष्ण प्रेम के प्रती करुणालहरी उत्पन्न हो गई अतः क्रिष्ण की याद में क्रिष्ण का चिंतन करते करते अपने धाम के निकट पहुच गए। एवं वहा का दृश्य देखकर सुदामांजी चकींत हो गए।
सुदामा मंदीर देखें डरें।
यहा तो थी मेरी छोटी झोपडीया।
अब कंचन महल खङे..!
                                           ...क्रमशः ...
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