˙˙जय मुक्ताई ..

Sunday, 2 October 2016

अयं ही परमो लाभ उत्तमश्लोक दर्शनं - भाग०८

अयं ही परमो लाभ उत्तमश्लोक दर्शनं
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सुदामाकथा-भाग०८

   अपनी टुटी फुटी झोपङी की जगहपर रत्नकांचनी महल खङा देखकर सुदामाजीं तो आश्चर्य के मारें सहम गए।

  और झोपङी की जगह यह कांचन महल कैसे हो गया यह सोचतें सोचतें उनके मन मे अविरत चल रहे क्रिष्ण चिंतन में अनायास बाधा उत्पन्न हो गई और कुछ समय के लिए भगवन का चिंतन खंडीत हो गया। देरसमय सोचविचार करनेपरांत सुदामाजीं की पत्नी सुशीलादेवी बाहर आयी तो देखा पतीदेव पधारे है, तो उनका स्वागत करनें के लिए थाली लाने के लिए भितर दौङी। स्वागत की थाली के साथ में आयी अपनी पत्नी को देखकर सुदामांजीने प्रथम प्रश्न किया की देवी ये सब कैसे हुआ..?


सुशीलादेवी मुस्कुरायी और बोली हे मेरे नाथ यह सब तो आपहीं के कारण संभव हुआ है ना..!
सुदामाजी पुन्ह आश्चर्यवश होकर पुछने लगे मेरे कारण यह महल कैसे बने होगें जरा ठिक से बताओ ना देवी, ताकी इस गरिब के समझ में कुछ आ जाए। सुशीला जीं बोली हे मेरे प्राणनाथ आपनें जब आपके प्रिय मित्र श्रीक्रिष्णचंद्र जी महाराज के दर्शन हेतु यहा से निकले थे तो आपके मित्र के लिए मैनें एक विलस्त कपडें मे बांधकर जो चावल दिए थे ना वह अगर आप अपने मित्र भगवन को नहीं देंते तो यहा यह रत्नकांचनी महल संभव ही न हो पाता, क्योंकी वह एक मुठ्ठी चावल मैंने भगवन को अपनी दरिद्र्यता का आभास करानें के लिए ही दिए थे, जिन्हें खाकर भगवन तृप्त तो हुए लेकीन विश्व की क्षुधा तृप्ती के लिए सहाय्य हुए थे,( *अर्नि विश्वात्मा प्रियंताम्*) और आप विश्वचालक भगवान के लिए प्रिय हो गए इसी कारणवश भगवान ने उसी समय विश्वकर्माजीं को आज्ञा देकर एक मुठ्ठी चावल के ऋण से पुरे नगरी को ही सुवर्ण का बना दिया क्योंकी वह चावल केवल अपने घर के ही तो न थे ना..! सबके यहा से आए हुए थे इसलिए सबके लिए भगवन ने एक ही नाप लगाया होगा,ऐसा मुझे लगता है। अपीतु अगर आप अगर अपने प्रिय मित्र से मिलनें जाने के लिए राजी न होते तो यह सब संभव हि न हो पाता परिणामस्वरुप आपही इस नगरी के भाग्यविधाता बन गए हो !
सारी बात का गांभिर्य ध्यान में रख सुदामाजी मन ही मन सोचने लगे की, अच्छा तो यह सब उस टेढीं टांगवाले का किया कराया है। और उनकें मन में तुरंत ही भगवन का विस्मरण होने की बात ने दस्तक दी तथा उन्हें ईस बात ने ज्यादा परेशान कर दिया की जीस वैभव को केवल देखने मात्र ही मुझसे मेरे भगवन का कुछ देर ही सही विस्मरण हो गया हो ऐसे मोहमाया से भरे वैभव का उपभोग करने से हो सकता है की मैं अपने प्रभु से सदा के लिए दुर चला जाऊ, उन्हें भुल ही जावु । अपीतु ऐसा वैभव मुझे किस काम का जिससें मेरे प्रभु का विस्मरण हो जाए। ( विपदो विस्मरण विष्णूः।संपद नारायणः स्मृती॥)
वास्तव में निरंतर भगवन का सुमीरण बना रहे यही सबसे बङी संपत्ती है। यह विचार से सुदामाजीं ने भगवन ने दि हुई सारी संपत्ती का अस्विकार करते हुए त्याग करने का निश्चय किया और भगवन को सारी संपत्ती सौपनें के लिए सुदामाजीं ने क्रिष्ण का स्मरण शुरु कर दिया। ऐसा कहते है की भगवन का सुमीरण करते करते सुदामांजीं ने अन्नपानि का सेवन भी भुल गए थे और २१दिनतक भगवन की राह में भुखे प्यासे रहे थे।
   २१दिनोंतक भक्त कि कङी परिक्षा लेने के बाद उच्चतम भक्तीं के धनी सुदामांजी की भक्ती की कर्मप्रधानता देखकर २२वे दिन भगवन क्रिष्ण अपने परममित्र एवं भक्त के व्दार मनोवांछीत फल देणे हेतु पधारे।
   और संपत्ती का मोह छोङ भगवन का नित्य स्मरण यही वास्तविक संपत्ती समझने वाले सुदामाजीं को एक मुठ्ठी चावल के उपलक्ष मे दि मर्त्य संपत्ती के बजाए-

एवं स विप्रो भगवत्सुहृत्तदा दृष्ट्वा स्वभृत्यैरजितं पराजितम्॥
तद्धयानवेगोग्दथितात्मबंधनस्तध्दाम लेभेऽचिरतः सतां गतिम्॥
ब्रह्मवेत्ता पुरुषों को लाभ देनेवाली गती प्रदान कर, भगवान ने अपने ही स्वस्वरुप में सुदामांजीं को समा लिया।
 सुदामाजीं ने संपुर्ण जिवन में विपरीत परिस्थितीयों पर मात कर परमपवित्र भगवन के स्मरण में ही संपुर्ण जिवन  व्यतीत किया इसी कारण उन्हे भगवन ने स्वयं वैकुंठ का घर ही प्रदान किया ऐसा कहा जाता है। ( तेणे वैकुंठ भुवनी घर केले।)
सुदामाजीं के चरित्र से हमें यही संदेश मिलता है की संसार मे कमाई संपत्ती वास्तव में संपत्ती नही होती क्योंकी जीसका जन्म हुआ है उसे नष्ट होना पङता है।( उपजे ते नाशे ) लेकीन जीसे पाने के बाद जीवन मे कुछ भी पाने की इच्छा नहीं होती और वास्तव मे वही संपत्ती जीव के उत्थानहेतु सरल होती है, ऐसे भगवन के प्रति अपना जीवन समर्पीत करने सें ही इस देह का उत्तमलाभ हमें प्राप्त होता है।
( लाभ तया झाला संसारा येवुनी। भगवंत ऋणी भक्ती गेला॥)
और यही सुदामाजीं ने अपने जीवन में सफल करके दिखाया है की संपत्ती के लिए संसार अगर किया जाए तो अंत मे रोना ही पडेगा लेकीन जिन्हें वास्तव संपदा का ज्ञान हो गया( संपद नारायण स्मृतीः ) उनका ही संसार सफल माना जाता है
संपदा तयाची न सरे कल्पांती।
मेळविला भक्ती देव लाभ॥

सुदामाजींका जीवनचरित्र हमें भगवन के प्रती अनन्यभाव से शरणागती की शिक्षा देता है।वास्तव में प्रभु हि इस लोक कि सर्वोत्तम संपत्ती है,यह बात सुदामाजीं के जीवन से सिखने को मिलती है इसलिए अपना महत्तम जीवन सुदामामय करने का प्रयास करे..।

सुदाम-क्रिष्ण की कथा का विवरण ऐसा हि होगा, यह आग्रह हम नहीं कर सकते, जैसा आपको ज्ञात हो उसके उपरांत हमारे शब्दों के लिए क्षमा करें।

इति सुदामा...

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